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दोस्तों,आज हम बात करने वाले हैं एक ऐसी सच्ची कहानी की जिसे सुनकर आप भी दंग रह जाएंगे। यह कहानी है पूर्ण लिम की एक ऐसे इंसान की जो 133 दिनों तक यानी लगभग 5 महीने समंदर के बीचों-बीच अकेला फंसा रहा और फिर भी जिंदा वापस लौट आया। जहां 55 लोगों में से सिर्फ एक इंसान ही जिंदा बचा और वो थे पूर्ण लिम। उन्होंने भूख, प्यास, तपती धूप, जमाने वाली ठंड और भयानक तूफानों को मात दी और अकेले ही मौत को हराकर वापस जमीन पर लौट आए।
तो चलिए दोस्तों,shrikant89.blogspot.com जानते हैं इस हैरान कर देने वाली सच्ची घटना के बारे में। और हां, ब्लॉग शुरू करने से पहले अगर आपने चैनल को अभी तक सब्सक्राइब नहीं किया है, तो जरूर कर लीजिए क्योंकि यह सब्सक्राइब बटन आपके लिए बिल्कुल फ्री है। लेकिन हमारे लिए वही आपका सबसे बड़ा सपोर्ट है। तो चलिए दोस्तों, यह कहानी शुरू होती है एक ऐसे साधारण से युवक से जो किसी अखबार की हेडलाइन बनने का सपना नहीं देखता था। उसका नाम था पून लिम। वो चीन के हाईनान द्वीप के एक छोटे से गांव में पला बढ़ा था। परिवार बहुत गरीब था। मां-बाप ने जैसे तैसे दो वक्त की रोटी जुटा रहा था। पढ़ाई बीच में छूट गई और फिर पेट की आग बुझाने के लिए पूर्णलिम ने ब्रिटिश व्यापारिक नौसेना ब्रिटिश मर्चेंट नेवी में नौकरी कर ली। वह साल था 1942 जब द्वितीय विश्व युद्ध अपनी चरम सीमा पर था। एसएस बेनोलोमंड पर तैनात किया गया। यह जहाज दक्षिण अफ्रीका केपटाउन से दक्षिण अमेरिका के सूरनाम की ओर जा रहा था। जहाज पर कुल 55 लोग सवार थे। अधिकतर जवान और अनुभवी नाविक 16 नवंबर 1942। दोपहर का वक्त समंदर शांत था। लेकिन किसे पता था कि समंदर की गहराई में मौत छुपी बैठी है। shrikant89.blogspot.com एक जर्मन पंडुब्बी यूबोट ने जहाज पर टॉर्पिडो से हमला कर दिया। जोरदार धमाका हुआ। एसएस बेनलोमन चंद मिनटों में दो हिस्सों में टूट गया। चारों ओर आग की लपटें, डूबते लोग और हाहाकार हर कोई जान बचाने की कोशिश कर रहा था। पूर्ण लिंब भी जहाज से कूट पड़ा। shrikant89.blogspot.com भाग्य ने उसका साथ दिया। उसे एक लाइफ जैकेट जीवन रक्षा जैकेट मिल गई। जिससे वह पानी में तैरता रहा। उस दिन न जाने पूर्ण लिम ने किस भगवान का पूजा किया था कि 55 लोगों में से वही एक जिंदा रह पाए। बाकी सभी लोग या तो जलकर मर गए या समंदर की गहराई में हमेशा के लिए खो गए। करीब 2 घंटे तक पूर्णलिंम समंदर में अकेला तैरता रहा। शरीर थक चुका था। लेकिन जिजीविषा अब भी जिंदा थी। तभी दूर उसे एक लकड़ी की नाव राफ्ट दिखाई दी जो शायद जहाज से गिर गई थी। पूर्ण लिम ने अपनी आखिरी ताकत लगाकर उस नाव तक पहुंचा और उस पर चढ़ गया। उस नाव में जो कुछ था वही अब उसका संसार था। दो छोटे खाना पकाने के बर्तन, एक टूटी हुई टॉर्च, थोड़ी सी चॉकलेट की पट्टियां, थोड़े से शक्कर के टुकड़े, कुछ बोतल ताजा पानी और एक ज्वाला घन, फ्लेयर गन जिससे वह किसी जहाज को संकेत दे सके। पूर्णलिम कांप रहा था। ठंड से थरथर। लेकिन मन में एक लौ अब भी जल रही थी। उसने हाथ जोड़ लिए और उस घड़ी में उसने वही किया जो उसकी मां ने उसे बचपन में सिखाया था। उसने भगवान बुद्ध की पूजा की। कहा जाता है कि उसी दिन पूर्ण लिम ने भगवान बुद्ध की सच्चे मन से पूजा की थी और शायद इसी कारण 55 लोगों में से केवल वही एक इंसान जिंदा बच पाया। उस दिन से पूर्ण लिम की असली लड़ाई शुरू हुई। एक अकेला इंसान एक लकड़ी की नाव और एक 133 दिन तक समंदर के बीचोंबीच जीवन और मौत की जंग पूर्ण लिम नाव पर अकेला बैठा था। आसमान की ओर देखकर उसने सोचा क्या कोई आएगा मुझे बचाने? क्या कोई जहाज दिखेगा? कोई मिशन लेकिन उस समय हालात ऐसे नहीं थे। पूरे विश्व में दूसरा विश्व युद्ध चल रहा था। हर देश अपनी जान बचाने में लगा था। किसी एक नाविक को ढूंढने के लिए रेस्क्यू मिशन भेजना नामुमकिन था। अब पूर्ण लिम समझ चुका था। अगर मुझे जीना है तो मुझे खुद ही यह समंदर जीतना होगा। नाव में जो कुछ बचा था, वही अब उसकी दुनिया बन चुका था। कुछ ही दिनों में खाना खत्म हो गया। पानी भी धीरे-धीरे कम होने लगा।
अब जीने के लिए उसे कुछ नया सोचना था। पूर्ण लिम ने कपड़ों का एक जुगाड़ बनाया जिससे वह आसमान से गिरने वाला बारिश का पानी इकट्ठा कर सके। वह कपड़े को फैला कर रखता और फिर उसमें जो थोड़ा बहुत पानी इकट्ठा होता उसे इकट्ठा करता। पर इतनी मात्रा कभी भी प्यास बुझाने के लिए काफी नहीं थी। फिर भी हर एक बूंद उसके लिए जिंदगी की उम्मीद थी। पूर्णलिम ने नाव की रस्सियों और कील से एक छोटा मछली पकड़ने का कांटा बनाया। घंटों मेहनत करता। एक मछली फंसती। भूख ऐसी होती कि वह उसे कच्चा ही खा जाता। धीरे-धीरे उसने सीखा। अगर मछली को तेज धूप में थोड़ा सुखाकर खाया जाए तो कम नुकसान होता है। तो अब वह मछली को नाव में रखे बर्तनों में पकाने या धूप में सेक कर खाने लगा। कभी-कभी सेगुल्स समुद्री पक्षी नाव पर आ जाते थे। पूर्ण लिंब बहुत धीरे से उन्हें पकड़ता और फिर उन्हें भी तपती धूप में सुखाकर खा लेता।
अब उसकी जिंदगी एक जंग बन चुकी थी। एक दिन उसका हाथ नाव में रखे टीन से कट गया। खून बहा और समंदर में फैल गया। कुछ ही समय में दो शार्क मछलियां नाव के चारों तरफ घूमने लगी। वो शार्क नीचे से नाव को धक्का देने लगी। पूर्ण लिम कांप उठा लेकिन हिम्मत नहीं हारी। वह चुपचाप बैठा रहा। और कुछ समय बाद शार्क वहां से चली गई। लेकिन अब उसका शरीर जवाब देने लगा था। भूख इतनी बढ़ गई थी कि आंखें खुलती नहीं थी। हाथ कांपते थे। कई बार तूफान आता और जो मछलियां उसने बचा रखी थी वह भी बह जाती। दिन में सूरज की आग जैसी तपन उसकी त्वचा को जला देती थी और रात में बर्फ जैसी ठंड उसकी हड्डियां जमा देती थी। उसकी सांसे भारी होती जा रही थी।
लेकिन इरादा अब भी मजबूत था। वह रोज ऊपर आसमान देखता। कभी कोई जहाज कभी कोई धुआं पर हर दिन वही सुनसान समंदर, वहीं खामोशी और ऐसे ही बीत गए। 20 दिन, 40 दिन, 80 दिन, हर एक दिन एक युद्ध था। हर एक सांस, एक जंग लेकिन पूर्ण लिम ने हार नहीं मानी। उन्होंने कई भयंकर तूफानों का सामना किया। कभी दिन में, कभी रात में। नाव चारों तरफ से डगमगाने लगती। ऐसा लगता मानो समंदर ही नाव को निगल जाएगा। कभी-कभी तो वह रात में सोते-सोते अचानक पानी में गिर जाता और कई बार जब वह मछली पकड़ने के लिए पानी में उतरता, तो उसकी छोटी सी नाव उसे छोड़कर दूर निकल जाती। फिर भी वह किसी तरह तैर कर अपनी नाव तक लौट आता। रात को जब वह सोता था तो अपनी कमर से नाव को रस्सी से बांध लिया करता था ताकि नाव दूर ना चली जाए। यह आसान नहीं था। हर बार थोड़ा और थकना, हर बार जिंदगी से और लड़ना लेकिन फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी। उसी नाव को अपनी दुनिया मान लिया था। पूर्ण लिम का संघर्ष अब अपनी हदें पार कर चुका था। वह हड्डियों का ढांचा बन चुका था।
आंखें ढंसी हुई, होंठ सूख चुके थे। लेकिन अब भी दिल में एक छोटी सी उम्मीद बची थी। कभी-कभी उसे दूर-दूर तक बड़े-बड़े जहाज नजर आते थे। वह खड़ा होकर चिल्लाता, हाथ हिलाता, फ्लेयर गन से संकेत करता लेकिन किसी ने भी उसे नहीं देखा। असल में उसकी नाव लकड़ी की बनी हुई थी। छोटी, हल्की और पानी के रंग में ही घुली हुई सी। इतनी छोटी कि दूर से किसी जहाज से देख पाना नामुमकिन था। एक बार तो ऐसा हुआ कि दो बड़े युद्धपत उसके काफी पास से गुजरे। पूर्णलिम ने देखा, फ्लेयर छोड़ा, चिल्लाया। लेकिन किसी ने कोई जवाब नहीं दिया। हैरान करने वाली बात यह थी कि जहाज के कुछ सैनिकों ने उसे देख भी लिया था। लेकिन फिर भी उन्होंने मदद नहीं की। क्योंकि उस समय पूरा विश्व द्वितीय विश्व युद्ध की आग में जल रहा था। लोगों को शक था कि कहीं यह दुश्मनों का जाल ना हो।
कोई फर्जी ना आओ। कोई चाल जो उनके जहाज को रोक कर तहस-नहस कर दे। इसलिए उन्होंने पूर्णलिम को नजरअंदाज कर दिया। पूर्णलिम ने देखा समझा पर हिम्मत नहीं हारी। कई बार अमेरिका की नौसेना के प्लेन उसके ऊपर से गुजरे। वह उन्हें हाथ हिलाकर बुलाता रहा लेकिन उन्हें कुछ समझ नहीं आया। एक बार तो एक विमान ने नीचे एक छोटा सा बोर्ड भी गिराया ताकि उसे सहारा मिल सके या कोई संदेश दिया जा सके। लेकिन समुद्र की विशाल लहरों ने उसे बहा दिया। अब पूर्ण लिम सोचने लगा। शायद अब यह मेरा अंत है। मेरा शरीर समंदर में ही समा जाएगा और मेरी कहानी भी यहीं खत्म हो जाएगी। लेकिन वह हार मानने वालों में से नहीं था। कुछ ही दिनों बाद जब समंदर कुछ शांत हुआ, सूरज की रोशनी पानी में गहराई तक उतरने लगी तो पूर्ण लिम ने नीचे देखा। पहली बार उसे समंदर की जमीन दिखने लगी। थोड़ा आगे बढ़ा तो उसकी नाव एक चट्टान से टकरा गई।
उसने समझ लिया मैं जमीन के बेहद करीब हूं। और फिर 5 अप्रैल 1943 का दिन 133 दिन तक समंदर में जिंदगी और मौत से लड़ने के बाद कुछ ब्राजली मछुआरे उस इलाके से गुजरे। उन्होंने एक आदमी को नाव में बेसुद पड़ा देखा। नजदीक गए। देखा वह आदमी अब भी सांस ले रहा है। बिल्कुल कंकाल बन चुका है। लेकिन जिंदा है। वे उसे तुरंत किनारे लाए। खाना दिया, पानी दिया। डॉक्टरों के पास पहुंचाया और तब पूरी दुनिया को पता चला। एक इंसान अकेले 133 दिन तक समंदर में जिंदा रहा। पूर्ण लिम को जब ब्राजील के मछुआरे बचाकर लाए तो वे लगभग एक महीने तक अस्पताल में ही रहे।
वह जो व्यक्ति इस घटना से पहले एक साधारण नाविक था, अब पूरी दुनिया में मशहूर हो चुका था। हर जगह से उन्हें बुलाया गया।
उन्हें सेलिब्रिटी ट्रीटमेंट मिला। कई देशों ने उन्हें सम्मानित किया, पदक दिए और उनके अद्भुत साहस को सलाम किया। बाद में पूर्ण लिम ने अपने अनुभवों से सीखा और दूसरों को सिखाया। उन्होंने कई नेवी अफसरों और समुद्री यात्रियों को ट्रेनिंग दी कि कैसे समुद्र में अकेले रहते हुए भी जिंदा रहा जा सकता है।
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Thank you / आभारी आहोत.
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