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क्या लाहौर भारत का हिस्सा होना चाहिए था?
"जिन्हें लाहौर नहीं देखा, वो जन्मे ही नहीं" — यह कहावत पंजाबी में बहुत मशहूर है। पुराने समय से ही लाहौर को "हिंदुस्तान का दरवाज़ा" कहा जाता था, क्योंकि यह मध्य एशिया और अरब से आने वाले यात्रियों का मुख्य मार्ग था। दिल्ली तक पहुंचने के लिए अक्सर लाहौर होकर ही जाना होता था। लेकिन 1947 में हुए बंटवारे के बाद लाहौर पाकिस्तान के हिस्से में चला गया।
लाहौर में कई प्रमुख मंदिर और धार्मिक स्थल थे जैसे:
इसके अलावा, लाहौर की अर्थव्यवस्था पर भी हिंदू और सिख व्यापारियों का प्रभुत्व था। वहाँ के प्रमुख अस्पताल और कॉलेज भी इन्हीं समुदायों द्वारा संचालित थे जैसे:
बंटवारे के समय ब्रिटेन से सिरिल रेडक्लिफ नामक व्यक्ति को बुलाया गया था, जिसे भारत-पाकिस्तान की सीमा रेखा तय करने का जिम्मा दिया गया। रेडक्लिफ ने कभी भारत देखा नहीं था और न ही भारतीय संस्कृति की जानकारी थी। उन्हें सिर्फ 10–12 दिन में नक्शा तैयार करने को कहा गया।
रेडक्लिफ कमीशन द्वारा जो सीमा रेखा बनाई गई, उसे आज हम रेडक्लिफ लाइन कहते हैं। इसी रेखा के अनुसार तय किया गया कि कौन से क्षेत्र भारत में और कौन से पाकिस्तान में जाएंगे।
12 अगस्त 1947 को, लाहौर में अफवाह फैली कि यह भारत का हिस्सा बनने जा रहा है। इस खबर के बाद वहां दंगे भड़क उठे। सिखों और हिंदुओं का बड़े पैमाने पर कत्लेआम हुआ। हालात इतने बिगड़ गए कि गवर्नर जेनकिंस ने लॉर्ड माउंटबेटन को फौज भेजने के लिए टेलीग्राम किया। कई पुलिसकर्मी भी हत्याओं में शामिल थे। एक मुस्लिम नेता लियाकत अली ने नारा दिया:
रेडक्लिफ द्वारा जल्दबाज़ी में और बिना स्थानीय जानकारी के बनाए गए नक्शे की वजह से लाहौर पाकिस्तान का हिस्सा बना। यह निर्णय न केवल लाहौर के इतिहास को बदल गया, बल्कि वहाँ के लाखों हिंदू और सिखों को अपनी ज़मीन-जायदाद छोड़कर शरणार्थी बनना पड़ा। जो शहर कभी भारत की सांस्कृतिक और व्यापारिक पहचान था, वह अब इतिहास के पन्नों में बंटवारे के दर्दनाक उदाहरण के रूप में दर्ज है।
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