श्रीमद्भगवद्गीता का उद्देश्य
हे पार्थ! जब-जब धर्म की हानि होती है, अधर्म की वृद्धि होती है – तब-तब मैं स्वयं अवतरित होता हूँ। यह मेरा वचन है, मेरा धर्म है और मेरा कर्तव्य भी।
इस गीता के माध्यम से मैं जो उपदेश दे रहा हूँ, वह केवल अर्जुन के लिए नहीं है; यह समस्त मानवता के लिए है। इसका उद्देश्य है – आत्मज्ञान, कर्तव्यनिष्ठा और परम शांति की प्राप्ति।
हे अर्जुन! तू जिस युद्ध से डर रहा है, वह केवल बाह्य संग्राम नहीं है। यह तो अंतरात्मा का युद्ध है – मोह और विवेक के बीच। तुझे कर्तव्य का पालन करना है, परंतु फल की इच्छा किए बिना। यही ‘निष्काम कर्मयोग’ है।
जब तू कहता है, “मैं युद्ध नहीं करूंगा,” तब वह तेरी दुर्बलता है। परन्तु तू क्षत्रिय है – तेरा धर्म है युद्ध करना, अन्याय के विरुद्ध खड़ा रहना। इसीलिए मैं कहता हूँ – “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”
हे अर्जुन! आत्मा न तो जन्म लेती है, न मरती है। वह न कट सकती है, न जल सकती है, न सुखाई जा सकती है। यह शरीर नश्वर है, पर आत्मा अमर है। इसलिए, जो मरेगा वह केवल शरीर है – आत्मा नहीं।
यह गीता – केवल एक ग्रंथ नहीं, यह जीवन जीने की कला है। जब तू मोह, शोक, द्वेष और भय से ग्रस्त हो जाता है, तब यह उपदेश तुझे स्थिर करता है। मैं कहता हूँ – “योगस्थः कुरु कर्माणि।” अर्थात, योग में स्थित होकर कर्म कर।
भक्ति, ज्ञान और कर्म – ये तीनों मार्ग हैं मोक्ष की ओर जाने वाले। तू जिस मार्ग को अपनाए, यदि वह श्रद्धा से युक्त है, तो वह तुझे मुझ तक अवश्य ले जाएगा। परंतु सर्वोत्तम मार्ग है – भक्ति योग। जब तू मुझे संपूर्ण समर्पित करता है, तब मैं तुझे संसार के बंधनों से मुक्त कर देता हूँ।
हे अर्जुन! यह संसार माया से आच्छादित है। मोह, लोभ, अहंकार – ये सब माया के ही रूप हैं। परंतु जो मेरी शरण में आता है, वह इस माया को पार कर जाता है।
अंत में, मैं तुझसे यही कहता हूँ – “सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।” सभी धर्मों को त्यागकर केवल मेरी शरण में आ जा; मैं तुझे समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा।
हे अर्जुन! जो यह गीता का उपदेश श्रद्धा से सुनता है, समझता है, और जीवन में उतारता है – वह मुझसे दूर नहीं रहता। उसका जीवन सफल होता है, और अंत में वह मुझमें लीन हो जाता है।
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